समीक्षा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग
(फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म)
(समीक्षक-अमीना)
इस नज़्म में शायर अपनी महबूबा से कहते हैं कि मैं तुमसे बहुत प्रेम करता था और मैंने ये समझा था कि अगर तुम हो तो मेरा पूरा का पूरा जीवन प्रकाषमान है, और अगर मेरे आगे तुम्हें कोई दुःखी या परेशानी हो तो उसके आगे पूरे संसार की चिंताओं का कोई महत्व नहीं होता था। क्;ोंकि मुझे तुम्हारे गमों के आगे सांसारिक चिंताओं से कोई वास्ता नहीं है। मेरे लिए तुम्हारा चेहरा पूरे संसार का स्था;ित्व है, तुम्हारी आँखों के अलावा दुनिया में कुछ भी नहीं है।शायर फैज़ कहते हैं कि ऐ मेरे महबूब, अगर तू मुझे मिल जाये तो पूरा संसार ही मेरे आगे सर झुका लेगा। मगर ऐसा नहीं हो सकता था क्योंकि ये तो मैंने बस चाहा था कि ऐसा भी कुछ हो जाए, लेकिन जब मैंने ये जाना कि इस दुनिया में केवल मोहब्बत ही नहीं बल्कि मोहब्बत के सिवा और भी बहुत से दुख है इस दुनिया में और जो आनंद तुमसे मिलने में आता था उससे भी ज्यादा आनंद इस दुनिया में ळें अनगिनत सदियों से एक ही दस्तूर चला आ रहा है वो ये कि हर जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है, सभी को अंधकार में रखा गया है, मानो जैसे बाज़ारों में जिस्म बेचे जाते हैं, सब कुछ खाक में मिला हुआ है। दुःख इतना है इस दुनिया में कि मानो जैसे जिस्म के नासूरों से पीप निकल रही हो।
शायर कहते हैं कि ये सब देख कर नज़र उसी ओर चली जाती है और ध्यान भी उसी ओर खिंचा चला जाता है। क्या करूं तुम्हारा शरीर आज भी उतना ही दिलकश है जितना पहले था। लेकिन क्या कर सकते हैं दुनिया में मोहब्बत के अलावा बहुत सारे दुख, पीड़ा व परेशानी है। ये पूरी दुनिया दुखों से भरी पड़ी है। महबूबा से मिलने के अलावा ओर भी ऐसे बहुत से आनंद है जो मुझे पहले पता नहीं था। अतः ऐ मेरे महबूब मुझसे पहली जैसी मोहब्बत ना मांग जो पहले था।
निष्कर्ष रूप इस शेर के माध्यम से शायर फैज़ ये कहना चाहते है कि केवल मोहब्बत ही सब कुछ नहीं होती बल्कि इस दुनिया को पूरी तरह से देखने के बाद पता चलता है कि दुनिया में कितनी कुरीति पर भरी पड़ी है और भ्रष्टाचार और सामाजिक विसमताएँ फैली पड़ी है और इन सभी विसमताओं कुरीतियों को दूर करने के लिए समाज में परिवर्तन लाना जरूरी है क्योंकि अगर समाज बदल जाता है तो उसके आनंद के आगे कोई आनंद नहीं है। अतः शायर एक क्रांतिकारी बनने की बात करते है।
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