कला एंव विज्ञान


जॉर्ज थॉम्सन की पुस्तक " ह्यूमन इसेंस" का एक अंश”


अनुवादः आनन्द सिंह


(प्रस्तुति- संदीप तोमर)


आम तौर पर विज्ञान और कला को एक-दूसरे से बिल्कुल स्वतंत्र और यहाँ तक कि विपरीत समझा जाता है। विज्ञान को वस्तुगत यथार्थ के अन्वेशण तक सीमित कर दिया जाता है और कला को मनोगत यथार्थ के अन्वेशण तक। परन्तु यह सोच ग़ैर-द्वंद्वात्मक है। ब्रिटिश मार्क्सवादी जॉर्ज थॉम्सन ने अपनी पुस्तकदा ह्यूमन इसेंसष्” में वैज्ञानिक और कलात्मक सृजन को द्वंद्वात्मक ढंग से समझाया है जो मुझे बहुत उपयोगी लगा। इसलिए मैं उसके एक अंश का अनुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

वैज्ञानिक और कलाकार, दोनों का सरोकार दुनिया को बदलने से होता है - एक का सरोकार प्रकृति के साथ मनुष्य के वस्तुगत सम्बन्धों के बाह्य जगत से होता है, जबकि दूसरे का सरोकार अपने साथ के मनुष्यों के साथ उसके मनोगत सम्बन्धों के आंतरिक जगत से होता है। वैज्ञानिक बाह्य जगत के प्रति अपनी चेतना में अंतर्विरोध की खोज करता है उसका समाधान किसी वैज्ञानिक परिकल्पना में करता है; कलाकार आंतरिक जगत के प्रति अपनी चेतना में अन्तर्विरोधों की खोज करता है और उसका समाधान किसी कला कृति में करता है। दोनों ही सष्जनात्मक कर्म हैं। वैज्ञानिक हमारे ज्ञान को और उसके साथ ही प्रकृति पर हमारे नियंत्रण को विस्तारित करता है; कलाकार हमारी सामाजिक जागरूकता को नई ऊँचाइयों पर ले जाता है और इस प्रकार वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। जिन दो क्षेत्रों में वे अपना कर्म विषेश करते हैं वो उस सामाजिक जगत के ही दो अभिन्न अंग होते हैं जिनमें वे रहते हैं और जिनमें वे साथ-साथ काम करते हैं। इसके अतिरिक्त, अपने कर्म विषेश में भी वैज्ञानिक मनोगत यथार्थ से पल्ला नहीं झाड़ सकता और ही कलाकार वस्तुगत यथार्थ से। वस्तुगत यथार्थ के अपने अन्वेशण के दौरान वैज्ञानिक अपना ध्यान वस्तुओं के परिमाणात्मक पहलू पर केन्द्रित करता है, अमूर्तन के एक स्तर से दूसरे स्तर तक तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि वह शुद्ध गणित के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर जाता। परन्तु, यह प्रकृति अर्थात् वस्तुगत का क्षेत्र नहीं होता,बल्कि उसके विपरीत शुद्ध विचार यानी मनोगत का क्षेत्र होता है और इस क्षेत्र में उसका कर्म एक प्रकार की कलात्मक गुणवत्ता का रूप ग्रहण कर लेता है। इसके विपरीत मनोगत यथार्थ के अपने अन्वेशण के दौरान कलाकार चीज़ों के गुणात्मक पहलू पर ज़ोर देता है, वह गद्य से पद्य की ओर और पद्य से संगीत की ओर तब तक बढ़ता जाता है जब तक कि वह शुद्ध ध्वनि के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर जाता जोकि प्राकृतिक नियमों के अनुरूप संचालित होती है। पुनष्चः बाह्य जगत का ज्ञान अर्जित करने के लिए वैज्ञानिक को इंद्रिय बोध के डेटा को आत्मसात करना होता है यानी उन्हें अपनी चेतना में पहले से ही स्थापित अवधारणात्मक श्रेणियों में समायोजित करना होता है और इस प्रक्रिया में मनोगत कारक शामिल होता है। इसके विपरीत, अपने साथ के मनुष्यों को प्रभावित करने के लिए कलाकार को अपनी भावनाओं को मूर्त रूप देना होता है, यानी उन्हें ऐसे रूप में प्रस्तुत करना होता है जो दूसरों को स्वीकार्य हो, और ऐसा करने के लिए उसे अपने षिल्प की वस्तुगत परिस्थितियों में महारत हासिल होनी चाहिए। इसलिए विज्ञान और कला दोनों में ही रूप और अन्तर्वस्तु के बीच एक सतत् अंतर्विरोध रहता है जो समाज में विकसित हो रहे अन्तर्विरोधों की प्रतिक्रिया में ही विकसित होता है। क्रांतिकारी परिवर्तनों के दौर में यह संघर्ष इतना तीव्र हो जाता है कि पारंपरिक श्रेणियाँ कमोवेश आमूलगामी तरीके से रूपान्तरित हो जाती हैं।



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