लघुकथा
"मजबूर"
सन्दीप तोमर
काला सोना निकालने की खादान में रमेश की राजेश से मुलाकात हुई। वह औजारों के साथ खादान में काम करने जा रहा था।
रमेश, ‘प्रणाम, श्रीमान्!’’
राजेश ने तीरछी निगाह उसकी तरफ उठायी और थोड़ा तेवर अपनी जुबान पर लाते हुए कहा, ‘‘प्रणाम।’’
रमेश ने बात आगे बढ़ाने की गरज से कहा ''और घर पर सब ठीक हैं? ’’
राजेश ने कहा, ‘‘हाँ, सब बढिया हैं, पर तुम्हें मालूम होना चाहिए कि अब मैं यहाँ लेबर नहीं रहा। तुम्हारा सुपरवाइजर हूँ।’’
रमेश ने कहा, ‘‘हाँ, राजेश लेकिन हम एक ही गाँव-गली से हैं, और साथ ही मजदूरी करने आये थे।’’
राजेश ने हिकारत से उसकी ओर देखा और कहा, ‘‘बेवकूफ इंसान, एक गाँव-गली का होने से तुम मेरी बराबरी करोगे?’’
रमेश ने कहा, ‘‘मैं आपको याद दिला दूँ कि तुम्हारे पिताजी, मेरे पिताजी के खेतों में मजूरी किया करते थे, तीन साल पहले आयी बाढ़ में सब बर्बाद न होता तो आज हमें यहाँ खादान में काम नहीं करना पड़ता।’’
राजेश के चेहरे पर क्रोध उभर आया, उसने कहा, ‘‘तुझे अपने बाप की किसानी पर बड़ा घमंड है, अगर चाहूं तो तेरे बाप की ज्यादती का तुझसे बदला ले सकता हूँ, तेरी हैसियत मेरे सामने उतनी ही है, जितनी मेरे बाप की तेरे बाप के सामने थी।’’
रमेश से आगे जवाब देते न बना, वह थोड़ा खिसियाते हुए बोला, ''जाने दे यार, वहाँ की बात को यहाँ दोहराने से क्या फायदा, मैं भूला नहीं हूं जब घर में खाने को अनाज नहीं था तब तुम ही मुझे यहाँ खादान में काम करने के लिए लाए थे।"
रमेश को मानो अपनी गलती का अहसास हो रहा था।
दोनों के इस वार्तालाप को उनके सीनियर सुन रहे थे, उन्होंने दोनो को पास बुलाकर कहा-"लेबर हो या सुपरवाइजर फिर कोई सीनियर , हैं तो हम सब मजदूर ही।"
राजेश ने कहा, ‘’हाँ सर, मजदूर अपने आप में सबसे बड़ी और मजबूर जाति है।’’
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वाह, आप कम शब्दो में बहुत कुछ कहने का अनोखा हूनर रखते हैं। शुभकामनाएं आदरणीय।
ReplyDeleteवक्त वक्त की बात ।बस इंसान वक्त को वक्त रहते पहिचान ले।
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